Thursday, 4 January 2018

Infertility

 बन्ध्यत्व या गर्भ का ना ठहरना:-विवाह के बाद यदि पति-पत्नी नवयुवा आयु के हो,तो एक से ड़ेढ वर्ष तक संतान न भी हो,तो भी कोई हर्ज या चिंता की बात नही होती,लेकिन जिनकी आयु 30-35 वर्ष के बीच हो,उन्हें संतान प्राप्ति में देर नही करनी चाहिए।ऐसी सूरत में यदि पति-पत्नी निरंतर साथ रहते है,किसी प्रकार का गर्भ-निरोधक उपाय नही करते,फिर भी गर्भ की स्थापना ना होती हो,तो फिर इस बात की जांच करना आवश्यक हो जायेगा कि पति-पत्नी में से किसमें कमी है या  विकार है,क्योंकी इस स्थिति को 'बंध्यत्व स्थिति' यानी स्टलिटी या इनफर्टिलिटी कहते है।कुछ हालात ऐसे होते है,जिनमे दोनो में ही कुछ कमियां होती है या दोनों में से किसी एक मे कमी हो सकती है।पति के मामले में शुक्राणुओं का न होना या पर्याप्त मात्रा में न होना टेस्टीज यानी अण्डकोषों की एट्रोफी यानी अण्डकोष अपूर्ण या विकृत स्थिति के हो,अनडिसेन्डेड टेस्टीज यानी जन्मजात स्थिति ऐसी होनी की अण्डकोष नीचे न उतरा हो या फिर ऑपरेशन से अण्डकोष निकाल दिया गया हो।पत्नी के मामले में ऐसा हो कि उसके डिम्बाशय, गर्भाशय, फेलोपियन ट्युब आदि प्रजनन अंग जन्मजात रूप से अनुपस्थित हो या डिम्ब न बनता हो,फेलोपियन ट्यूब अवरूद्घ हो या ऑपरेशन द्वारा गर्भाशय निकाल दिया गया हो।ये सभी सथितिया 'पूर्ण बंध्यत्व' की होती है।पूर्ण बन्ध्यत्व वाली स्थिति का इलाज लगभग असंभव होता है।कुछ सिथतियाँ ऐसी भी होती है,जिनमे पति-पत्नी दोनों में ही कुछ-न-कुछ खराबियां या कमिया होती है और जिनका ईलाज करना सम्भव भी होता है।इन स्थितियों को 'रिलेटिवस्टलिटी' कहते है।गर्भ न ठहरने के कारणो की जांचो में पति की जांच का बहुत महत्व होता है।पति के शुक्र की जांच करके यह देखा जाता है कि उसमें पर्याप्त मात्रा में शुक्राणु है या नही। यदि अस्थायी रूप से या स्थायी रूप से वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नही हो,तो इसे 'ओलिगोंस्पमिया' यानी शुक्राणु -अल्पता की स्थिति कहते हैं।इस स्थिति में गर्भाधान होने की संभावना बहुत क्षीण हो जाती है।ऐसा भी होता है कि शुक्र में शुक्राणु बिलकुल ही न पाए जाय तो इसे 'अजोस्पमिया' यानी शुक्राणु हीनता की स्थिति कहते है।इस स्थिति में गर्भाधान होने की कतई कोई संभावना नही रहती है। एकक स्थिति पस सेल्स पाए जाने की होती है, जो गर्भाधान में बाधक होती है। शुक्राणुओं की कमी का कारण डायबिटीज़(मधुमेह), गुप्त रोग, मम्स, विषाणुजनित संक्रमण, अण्डकोषों की थैली पर चोट (स्क्रोटल इंजरी), ऑपरेशन होना, तपेदिक होना, रेडिएशन का असर होना, कोई भावनात्मक मानसिक आघात लगना आदि कोई कारण हो सकता है।यदि शुक्राणु पर्याप्त मात्रा में हो, किन्तु स्खलन के फौरन बाद ही गतिहीन हो जाये,तो भी गर्भधान नही हो पाता।यदि अजोस्पमिया की स्थिति हो और इसका कारण किसी प्रकार का अवरोध हो,तो इसका ऑपरेशन करके अथवा होमियोपैथिक चिकित्सा द्वारा अवरोध हटाया जा सकता है। अगर जन्मजात कारणों से शुक्राणुओं का निर्माण न होता हो, तो इसकी चिकित्सा कठिन है।अन्य कारणों से चिकित्सा करके शुक्राणु - अल्पता को ठीक किया जा सकता है। पति यदि अजोस्पमिया से ग्रस्त है, तो पहले पति की चिकित्सा की जानी चाहिये , अन्यथा पत्नी की जांच करना बेकार होगा, क्योंकि पत्नी गर्भधारण करने में सक्षम हो या न हो, पर अजोस्पमिया से ग्रस्त पति तो गर्भाधान करने के योग्य होता ही नही।पत्नी की जांच उस स्थिति में करना जरूरी होता है,जब उसका पति पूर्ण स्वस्थ और गर्भाधान करने में पूर्ण सक्षम हो, फिर भी गर्भास्थापना न हो रही हो। ऐसी स्थिति में पत्नी की जाँचो के प्रमुख वर्ग तीन है।पहला सर्वाइकल फैक्टर यानी गर्भाश्य ग्रीवा से संबंधित मामला, दूसरा ओव्युलेशन और तीसरा ट्यूबल फेक्टर ।----सर्वाईकल फैक्टर:- योनि और गर्भाशय ग्रीवा में इंफेक्शन होना या इस जगह एसीडिटी बढ़ी हुई होना। इन दोनो कारणों से शुक्राणु बच्चेदानी के मुंह तक आते-आते खत्म हो जाते है, जिस कारण गर्भ स्थापित नही हो पाता।                           -ऑव्युलेशन:- यदि महिला का मासिक धर्म प्रति माह नियमित रूप से 28 दिन में हो रहा हो, तो ऑव्युलेशन का समय महिला के ऋतुकाल के 14वे दिन यानी अगला मासिक धर्म शुरू होंने के दिन से 14 दिन पहले होता हैं। ऑव्युलेशन का मतलब होता है डिम्ब का गर्भशय में उपस्थित होना, जो गर्भ की स्थापना के लिए उतना ही  जरूरी होता है, जितना पुरुष के वीर्य में पर्याप्त मात्रा में शुक्राणुओ का होना जरूरी होता है।।              
  • -ट्यूबल फैक्टर:- गर्भशय की दोनों तरफ स्थित ओवरीज यानी डिम्बाशय से निकल कर एक-एक नली गर्भशय से जुड़ी होती है। इन्हे फेलोपियन ट्यूब कहते है।डिम्बाशय से निकलने वाला डिम्ब इन्ही नलियों से होता हुआ गर्भाशय में पहुँचता है, जहाँ शुक्राणुओं से उसका संपर्क होता है और  गर्भ की स्थापना हो जाती है।इनका संपर्क न हो, तो गर्भ स्थित नही हो पाता। इन तीनो वर्गो की जांच करके यह देखा जाता है कि कहां खराबी है।यदि मासिक धर्म आगे-पीछे होता हो ,तो ऑव्युलेशन पीरियड भी आगे-पीछे होता है।ऑव्युलेशन हो रहा है या नही, यह जानने के लिए मासिक धर्म के एक सप्ताह पहले डी .एंड.सी.करके , बच्चे दानी के अंदर से थोड़ा प्रदार्थ निकालकर जांच के लिए भेज देते है।2-3 दिन में रिपोर्ट मिल जाती है, जिससे पता चल जाता है कि ऑव्युलेशन हो रहा है या नहीं। यदि हारमोन्स की कमी हो , तो इसका भी पता चल जाता है। कोशिश यही की जाती है कि बन्ध्यत्व का जो भी कारण हो , उसकी जानकारी प्राप्त की जाए और उस कारण को दूर किया जाए।अब तो दिन-ब-दिन विज्ञान नए-नए उपाय खोजता जा रहा है और नई-नई सफलताएं मिलती जा रही है।अतः निराश होने का कोई कारण नहीं।                                                                                                 -उपचार:- सिमिलिमम के आधार पर निम्नलिखित होमियोपैथीक औषधीया प्रयुक्त की जानी चाहिए- 'कालीब्रोम' , 'हयोसाइमस' , 'ओरम' , 'अमोनकाब्रा' , 'फेरमफाँस' , 'साईलेशिया' , 'काँफिया' , 'लेकेसिस' , 'नैट्रम्यूर' , 'एग्नस कैक्टस' ,     -बन्ध्यत्व जैसी स्थितियमेव दवा का चुनाव करते समय प्रायः रोगी की मानसिक अवस्था, प्रकृति, प्रव्रिटी ,अचार - विचार , भूख - प्यास, खान - पान , समान्य शारिरिक क्रियाये , नींद , गुस्सा आदि उचित दवा के  चुनाव में मददगार साबित होता है!
  1. knowlege for you


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